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गठबंधन ताश के पत्तो का महल या सत्ता की सीढ़ी

भारतीय राजनीति हो या समाज यहां गठबंधन का एक अपना महत्वपूर्ण रोल है । भारतीय समाज में जहां दो व्यक्ति जुड़कर जीवन के अभिन्न सुखों को भोगने के लिए संघर्ष करते है, तो कोई सामाजिक कार्य, बिना गठबंधन के संभव नही होता । गठबंधन में बंधने वाले लोग अक्सर अपनी स्वयं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या ऐसी इच्छाएं जो गठबंधन में जुड़ने वालें दोनो पक्षों की समान होती है पाने के लिए एक साथ प्रयास करते है, और परिणाम को आपस में बांटकर भोगते है । भारतीय समाज में गठबंधन से पूर्व कई चीजे देखी जाती है, जैसे जुड़ने वाले व्यक्तियों को सामाजिक व्यक्तित्व, जाति, धर्म कुल मिलाकर यही सुनिश्चित किया जाता है कि ये गठबंधन कोई नई समस्याएं खड़ी न करे । वहीं अगर राजनीति की बात करे, तो भारतीय राजनीति में गठबंधन की शुरुआत larger than country image वाली प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी को पद से हटाने के लिए संपूर्ण विपक्ष ने एकमत होकर जनता पार्टी के रूप में गठबंधन किया । और अपना लक्ष्य प्राप्त किया। ये गठबंधन का एकमात्र लक्ष्य था इंदिरा जी को पद से हटाना । लक्ष्य प्राप्ति के बाद गठबंधन एक दम दिशाहीन हो गया । और 02 वर्ष ब

नेहरू जी : आधुनिक भारत के प्रारंभिक पदचिन्ह

 15 august 1947, एक देश आजाद हुआ, एक सपना पूरा हुआ, बूढ़ी और कई जवान आंखे जब कारागार के अंधेरे में विलीन हो गई, तब जाके कई लाख कोरी आंखो को सपने देखने की अनुमति मिली। वैसे तो भारत सभ्यता के शैशव काल से ही समृद्ध था किंतु हजारों सालों की दासता की धूल हटाते हटाते हमारा इतिहास कहीं खो गया था, और हम एक कोरे राष्ट्र के रूप में उस आधी रात को खड़े थे। उस समय भारत के इतर हम विश्व की और देखे तो पूरा विश्व दो धड़े में बंटा था। एक उन की सरकार जो पूंजी को महत्व देते थे और एक वो जो समाज को देखता था । तो हमारे जो राष्ट्र के निर्णय लेने वालें थे बड़ी दुविधा में थे क्योंकि हमारे पास मुंबई और गुजरात थी तो कोलकाता और विहार भी अब बड़ी समस्या की अगर मुंबई संभालते तो कोलकाता लूट रहा था और कोलकाता संभालते तो बंबई । फिर हमने निकाला दिल्ली का रास्ता, ना मुंबई ना कोलकाता, तो हमारी ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमे पूंजी की बात थी किंतु समाज को पीछे नही छोड़ा था इसी समावेशी अर्थव्यवस्था देने वाले हमारे पहले प्रधानमंत्री चाचा नेहरू जी के बारे में आजकल बहुत कुछ कहा जा रहा है, लेकिन आज जब भारत में पूंजीवाद भारी है एवम अतिराष

विपक्ष पस्त सरकार मस्त

 बीसवीं सदी राजतंत्र के लिए अंत बनकर आयी ओर पूरे विश्व में एक नई व्यवस्था में जन्म लिया। इस व्यवस्था में अधिकार एक व्यक्ति के पास न होकर एक समूह के पास चला गया, ओर ये समूह उस देश या सूबे का भविष्य तय करने का अधिकारी था जिसे आम भाषा में सरकार कहा गया । किन्तु इस बार खूबसूरती यह थी कि इस समूह की देखरेख व कामकाज की समीक्षा हेतु विपक्ष के रूप में एक अन्य समूह बना। जनता की बात, सरकार तक ओर सरकार की गतविधियों की समीक्षा कर जनता तक पंहुचा ने, सरकार पर अंकुश लगाने को दायित्व विपक्ष पर ही था। बीसवीं सदी के मध्य में स्वतंत्र हुए भारत ने भी यही प्रथा अपनाई, पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे विशाल व्यक्तित्व के सामने, संसद में भले विपक्ष का विधिपूर्वक नेता नहीं था। किन्तु उनकी नीतियों की समीक्षा हेतु पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय जी, प्रो के. टी. शाह, अटल बिहारी बाजपेई, रामधारी सिंह दिनकर एवम् अन्य विभूतियां मौजूद थीं जिन्होंने पंडित जी की हर एक नीति की समीक्षा परिस्थिति अनुसार की।         1969 इंदिरा गांधी कार्यकाल में विपक्ष का पहला अधिमान्य नेता कांग्रेस के है दूसरे धड़े ने दिया । फिर
बेशक मीनारों सी खूबसूरत तू मुझे तेरे जज्बात भी चाहिए यूँ तो मिलते हर रोज़ है हम मुझे तुमसे संवाद भी चाहिए कहते है लोग की तुम  सिर्फ मेरे लिए बनी हो मुझे सिर्फ सपना नही  यथार्थ भी चाहिए बेशक मीनारों सी खूबसूरत तू  मुझे तेरे जज्बात भी चाहिए माना मेरी एक पुकार पर तू अपना संसार छोड़ आएगी  मगर मुझे सिर्फ तू नही  तेरा संसार भी चाहिए बेशक मीनारों सी खूबसूरत तू  मुझे तेरे जज्बात भी चाहिए बेशक तू राधा सी सरल मगर मुझे रुक्मणि सी चाहिए तेरे संग कोई अनूठी कविता नहीं मुझे पूरी की पूरी कहानी चाहिए बेशक मीनारों सी खूबसूरत तू मुझे तेरे जज़्बात भी चाहिए बेशक तू फाग सी मदमस्त मुझे पौष सी सुस्ती भी चाहिए तेरे संग  जवानी नहीं  मुझे पूरी की पूरी जिं दगा नी चाहिए बेशक मीनारों सी खूबसूरत तू मुझे तेरे जज़्बात भी चाहिए